क्यूं होता है अँधेरा
काला गुमसुम सा
लोग उससे कतराते हैं
आता वोह
फिर भी पीछे है
भाग क्यों नहीं जाता कहीं
जा नहीं सकते
हम भी कहीं
उससे भागकर
उदासी
घेरे रहती है
मन को
जो चाहो
वो सब हो नहीं पाता
ज़िन्दगी लगती है
एक समझौता
क्यों जीते हैं इसे
कहीं कोई होता नहीं होगा
कोई अपना
नहीं
चाहिए भी नहीं
मूर्ति बना देता भगवान्
जी लेते उसे भी
कम से कम
निर्जीव हूँ कुछ नहीं होगा मुझे
इसका विश्वास तो होता
कोई क्यों करे
मुझसे प्यार
क्यों चाहे मुझे
मिट्टी हूँ
किसी काम की नहीं हूँ
फेंक देता तो
दर्द ना होता
आंसूओं को भी
बनाया भगवान् ने
ऐसी लगती है
ज़िन्दगी
आंसू को गले नहीं लगाते
वो बहने के लिए हैं
तुमने गले लगाया
यह अहसान है
ज़िन्दगी के
छोटे छोटे पल
ज़िन्दगी से भारी होंगे
यह सोचा ना था
Friday, 23 July 2010
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